जन्म-मरण
ईश्वर अजन्मा है और इसके विपरीत जीवात्मा जन्म-मरण धर्मा है। इस जन्म से पूर्व भी हम अर्थात् हमारी जीवात्मा अपने पूर्वजन्म में उस जन्म के भी पहले के जन्मों के अभुक्त कर्मों के अनुसार किसी प्राणी योनि में इस ब्रह्माण्ड में कहीं इस पृथिवी के अनुरूप गृह पर जीवन व्यतीत कर रहे थे और ऐसा ही हमारे इस वर्तमान जीवन की मृत्यु के बाद भी होगा। परमात्मा की हम पर कृपा होने से वह हमारे इस जन्म व पूर्वजन्मों के अभ्युक्त कर्मों के अनुसार जन्म देता है और कर्मों के अनुसार ही हमारी जाति ?(मनुष्य, पशु वा पक्षी आदि), आयु और भोग (सुख व दुःख) निश्चित होते हैं। यदि परमात्मा व प्रकृति में से, दोनों अथवा कोई एक या दोनों ही, न होते तो हमारा जन्म व मरण नहीं हो सकता था और न ही हम किसी प्रकार के सुख व दुःखों का भोग कर सकते थे।
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व्यर्थ आडम्बर का कोई लाभ नहीं एक बार की बात है कि किसी सेठ ने मन्दिर बनवाने के लिए स्वामी दयानन्द की सम्मति माँगी। स्वामी दयानन्द ने गम्भीर तथा निडर होकर उत्तर दिया - सेठ जी, प्राणिमात्र का कल्याण करने वाले किसी अन्य परोपकारी कार्य में धन लगाओ। जड़ की पूजा के स्थान इस मन्दिर को बनाने से कोई लाभ नही। स्वामी जी महाराज के...
भारत एकमात्र ऐसा देश है जहाँ सभी छह ऋतुएं उपलब्ध हैं। परन्तु सातवीं एक और ऋतु है नारों की। हाँ! यहाँ नारों की भी एक ऋतु होती है, जिसमें कोई एक नारा चल निकलता है और ऋतु समाप्ति पर अपने आप समाप्त हो जाता है, कोई किसी से दुबारा उन नारों के लिए प्रश्न नहीं पूछता। गरीबी हटाओ भी इस देश का नारा था,...