क्रिया की प्रतिक्रिया
पीड़ा में मनुष्य बालकोचित व्यवहार करने लगता है। उसे घटाने-मिटाने के लिए परम पिता के समक्ष मचलता और आग्रह-अनुरोध करता है। कदाचित् वह इसे समझ नहीं पाता कि विघ्न-बाधाएँ मनुष्य को मजबूत बनाती हैं। वह परमात्मा की नहीं, प्रारब्ध और परिस्थतियों की उपज हैं। इसलिए यहाँ प्रार्थना की नहीं, सहिष्णुता की आवश्यकता है। ध्वनि की प्रतिध्वनि और क्रिया की प्रतिक्रिया की तरह यदि हमारे ही कर्म हम पर प्रारब्ध भोग की तरह लड़ते लदते हैं, तो उसमें गिड़गिड़ाने-घिघियाने वाली भिक्षुक मनोवृति न अपनाकर साहसियों जैसा व्यवहार करना चाहिए और उन्हें सह लेने की हिम्मत जुटानी चाहिए।
In pain, man starts behaving childishly. In order to reduce and eliminate it, he moves and requests before the Supreme Father. Perhaps he does not understand that obstacles make a man strong. They are not the product of God, they are the product of fate and circumstances. That's why tolerance is needed here, not prayer. Like the echo of sound and the reaction of action, if our own deeds fight on us like destiny, then instead of adopting the beggar's attitude of begging and whining, we should behave like brave people and muster the courage to bear them.
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व्यर्थ आडम्बर का कोई लाभ नहीं एक बार की बात है कि किसी सेठ ने मन्दिर बनवाने के लिए स्वामी दयानन्द की सम्मति माँगी। स्वामी दयानन्द ने गम्भीर तथा निडर होकर उत्तर दिया - सेठ जी, प्राणिमात्र का कल्याण करने वाले किसी अन्य परोपकारी कार्य में धन लगाओ। जड़ की पूजा के स्थान इस मन्दिर को बनाने से कोई लाभ नही। स्वामी जी महाराज के...
भारत एकमात्र ऐसा देश है जहाँ सभी छह ऋतुएं उपलब्ध हैं। परन्तु सातवीं एक और ऋतु है नारों की। हाँ! यहाँ नारों की भी एक ऋतु होती है, जिसमें कोई एक नारा चल निकलता है और ऋतु समाप्ति पर अपने आप समाप्त हो जाता है, कोई किसी से दुबारा उन नारों के लिए प्रश्न नहीं पूछता। गरीबी हटाओ भी इस देश का नारा था,...