साक्षी का अनुभव
सत्य की प्रतीति ही हमें संत बनाती है। नियम, व्रत, उपवास से कोई संत नहीं होता है। सत्य को जो जान लेता है, अपने भीतर विराजमान, पहचान लेता है, अपने भीतर के देवता को, अंतर्-देवता से जिसका परिचय हो जाता है, वही संत है। संतत्व तो है साक्षी का अनुभव। न मैं मन हूँ, न मैं ह्रदय हूँ, न मैं देह हूँ, न मैं बाहर हूँ, न मैं भीतर हूँ। मैं सारे द्वंद्व और द्वैत का अतीत हूँ। जहाँ दोनों का अतिक्रमण हो गया है। जहाँ सिर्फ शुद्ध चैतन्य हो जाना है। जिस पर कोई बंधन नहीं हैं, न विचार के, न भाव के।
It is the realization of truth that makes us saints. One does not become a saint by rules, fasting, fasting. One who comes to know the truth, who is situated within himself, recognizes the deity within himself, the one who is acquainted with the inner deity, is a saint. Sattva is the experience of witnessing. I am neither the mind, nor the heart, nor the body, nor the outside, nor the inner. I am the past of all duality and duality. Where both have been encroached upon. Where there is only pure consciousness. On which there are no restrictions, neither thoughts nor feelings.
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धर्म का ज्ञान धन तथा काम में अनासक्त मनुष्य ही धर्म को ठीक-ठीक जान सकता है। धर्म की सबसे बड़ी कसौटी वेद है। जो धर्म के रहस्य तथा सार को जानना चाहते हैं, उनके लिए वेद परम प्रमाण हैं। अर्थात धर्म का स्वरूप व रहस्य जानने के लिए वेद ही परम प्रमाण है। Only a person who is not attached to money can know...
गरीब देश की गरीबी कोई अदृश्य या काल्पनिक नहीं थी और ना हि किसी ने उसे किताबों से निकालकर नारों की शक्ल दी थी। राजाओं के लिए तो मान्यता थी कि वे देश की गरीबी की परवाह नहीं करते थे और खुद की शहनशाही शान-शौकत और अय्याशी जनता के खर्च पर करते रहते थे। उनका तो जन्म ही महलों में रेशम की गुदडियों में और...